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17:02, 10 दिसम्बर 2006 का अवतरण
लेखक: कैलाश गौतम
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देख करके बौर वाली
आम की टहनी
तन गये घुटने कि जैसे
खुल गयी कुहनी।
धूप बतियाती हवा से
रंग बतियाते
फूल-पत्तों के ठहाके
दूर तक जाते
छू गयी चुटकी
हंसी की हो गई बोहनी।
पीठ पर बस्ता लिये
विद्या कसम खाते
जा रहे स्कूल बच्चे
शब्द खनकाते
इस तरह
सब रम गये हैं सुध नहीं अपनी।
राग में डूबीं दिशायें
रंग में डूबीं
हाथ आयी ज़िन्दगी के
संग में डूबीं
कल
उतरने जा रही है खेत में कटनी