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बो / श्याम महर्षि
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बो
काल ताणी
जांवतो चेजै
अर सौंवतो
अधबणी हेली रै
हेठै
हुय‘र निसफिकर,
बो जांवतो मजूरी खातर
मिल मांय
अर सौंवतो/आपरी नींद
कै जागतो/नींद आपरी,
बो
ऊभग्यौ है
म्हारै साम्हीं
ताण्यां मुट्ठी आज
क्यूंकै
उण खातर/लिखी है कविता
बो
पढ़ी ही
म्हारी कवितावां
इण खातर
आग्यो म्हासूं लड़बा
ताण्यां मुट्ठी,
बो काल तांई
नीं जाणै हो
अधबणी हेली
अर मील री
ऊंची होंवती
चिमनी रै/राज नै,
बो स्यात्/नीं जाणै हो
पसीनै सूं
हळाडोब हुंवतै/आपरै डील री
मेहनत रो मोल,
बो
आयो हो/लड़बा म्हासूं
ऊभौ हो सड़क माथै
ताण्यां मुट्ठी,
बो
कविता सूं बेसी म्हनै
अर म्हासूं बेसी कविता नैं
घणौ जाणै
इंण खातर
तांण राखी है मुट्ठी
म्हारो सांम्ही।