भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शिशिर की रात (2) / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:58, 12 जनवरी 2015 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

स्तब्ध, गीली, शुभ्र धुँधली रात है,
बह रहा शीतल शिशिर का वात है !

छा रहा कुहरा धुआँ-सा दूर तक,
छिप गया है चन्द्रमा का नूर तक !

हो गयी फीकी नशीली ज्योत्स्ना,
व्योम मानों शीत का बंदी बना !

घोंसलों से मूक चिड़ियाँ झाँकतीं,
नींद में डूबी हुईं कुछ आँकतीं !

शांत धरती पर खड़ी ज्यों भित्तियाँ
जम गयी प्रत्येक तरु की पत्तियाँ !

आज चंचल धूल भी चुपचाप है,
उच्च टूटे शृंग पर हिमताप है,

बर्फ़ का तूफ़ान आएगा अभी,
श्वेत चादर-सी बिछाएगा अभी !

बन्द कर लो ये झरोखे द्वार सब,
आज तो उमड़े हृदय का प्यार सब !

रात लम्बी है सबेरा दूर है,
क्या करें, यह मन बड़ा मजबूर है !

इस तरह अब और शरमाओ नहीं,
पास आओ, दूर यों जाओ नहीं !

रूठने का आज यह अवसर नहीं
ज़िन्दगी इस रात से बेहतर नहीं !