भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आकृति / नीना कुमार

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:05, 31 अगस्त 2012 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सदा से आकार लेती, आकृति क्या तुम ही थे
जो कभी स्वर ले ना पाई अभिव्यक्ति क्या तुम ही थे

सदा से बनती बिगड़ती, कभी मिटती, कभी छलती
मेरी इस अरचित कविता की पंक्ति क्या तुम ही थे

कस्तूरी को ढूंढती, वन मे विचरती घूमती
जिस विवशता से बंधी वह अनुरक्ति क्या तुम ही थे

परिचित अपरिचित भूलती शून्य में सिमटती डूबती,
इस वैराग्य से वापिस बुलाते आसक्ति क्या तुम ही थे