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कान / हरिऔध

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 रासपन के चिद्द से जो सज सका।

क्यों नहीं तन बिन गया वह नोचतन।

कान! तेरी भूल को हम क्या कहें।

बोलबाला कब रहा बाला पहन।

धूल में सारी सजावट वह मिले।

दूसरा जिससे सदा दुख ही सहे।

और पर बिजली गिराने के लिए।

कान तुम बिजली पहनते क्या रहे।

बात सच है कि खोट से न बचा।

पर किसी से उसे कसर कब थी।

तब भला क्यों न वह मुवु+त पाता।

कान की लौ सदा लगी जब थी।

जब मसलता दूसरों का जी रहा।

आँख में तुझसे न जब आई तरी।

दे सकेंगी बरतरी तुझको न तब।

कान तेरी बालियाँ मोती भरी।

भीतरी मैल जब निकल न सका।

तब तुम्हें क्यों भला जहान गुने।

बान छूटी न जब बनावट की।

तब हुआ कान क्या पुरान सुने।

किस लिए तब न तू लटक जाती।

जब भली लग गई तुझे लोरकी।

छोड़ तरकीब से बने गहने।

गिर गया कान तू पहन तरकी।

तंग उतना ही करेगी वह हमें।

चाह जितनी ही बनायेंगे बड़ी।

कान क्यों हैं फूल खोंसे जा रहे।

क्या नहीं कनफूल से पूरी पड़ी।

जब किसी भाँत बन सकी न रतन।

तेल की बूँद तब पड़ी चू क्या।

जब न उपजा सपूत मोती सा।

कान तब सीप सा बना तू क्या।

राग से, तान से, अलापों से।

बह न सकता अजीब रस-सोता।

रीझता कौन सुन रसीले सुर।

कान तुझ सा रसिक न जो होता।

तो मिला वह अजीब रस न तुझे।

पी जिसे जीव को हुई सेरी।

लौ-लगों का कलाम सुनने में।

कान जो लौ लगी नहीं तेरी।