सेतु-बन्धन / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
आयसु पा श्रीराम की, बल-विवेक आगार।
भालू-कीस करने लगे, तुरत सेतु तैयार।।
सारा कपिदल था जुटा हुआ, अपना कर्त्तव्य निभाने में।
उस पार सिंधु के जाने को, सागर पर सेतु बनाने में।।
मिलजुल कर सब उत्साह सहित गिरिखंड उठा कर लाते थे।
हर पत्थर पर श्रीराम नाम निज कर से लिखते जाते थे।।
नल-नील स्वयं निज हाथों से पानी पर उन्हें तिराते थे।
प्रभु की महिमा लख मन ही मन बजरंग बली हर्षाते थे।।
करूणा-वरूणालय राघवेन्द्र यह कौतुक सब थे देख रहे।
उस शिल्प कला के कौशल को थे निज नयनों से पेख रहे।।
सहसा कुछ भाव जगा मन में, टुकड़ा पत्थर का उठा लिया।
फिर हाथ बढ़ा सबके सन्मुख पानी में उसको फेंक दिया।।
पड़ते ही जल में डूब गया वह प्रस्तर-खण्ड वहीं सत्वर।
मारूत-सुत को संबोधित कर बोले रघुवर फिर मुसका कर।।
तुम छूते जिसे शिला भी वह जल के ऊपर तिर जाती है।
पर फेंकी हुई हमारी तो कंकर भी ठहर न पाती है।।
इसलिए बड़े हो तुम भाई, गौरवमय नाम तुम्हारा है।
तुम सबके ही बल पर भैया! चलता हर काम हमारा है।।
यह मधुर सूक्ति सुन स्वामी की, हनुमान तनिक से सकुचाए।
फिर संभल तुरत बोले मुख से ये वचन सभी के मन भाए।।
भगवन्! कहते हें सत्य आप, किंचित यह झूठी बात नहीं।
मिथ्या कर दे जो इसे, किसी की है इतनी औक़ात नहीं।।
देते जो कंकर फेंक आप, वह डूब उसी क्षण जाती है।
परित्यक्ता होकर वह अपना अस्तित्व नहीं रख पाती है।।
अनहोनी क्या, कैसे भगवन्, इसको अचरज कर माना है?
ठुकरा दें जिसको आप, कहाँ उसको फिर ठौर-ठिकाना है?
कर दें जिसका परित्याग आप, फिर उसको कौन बचा पाए?
नैया कैसे उस पामर की कोई उस पार लगा पाए?
कर गहते जिसका आप, दया का आश्रय जो पा जाता है।
अपनाते जिसको आप, वही भवसागर से तर पाता है।।
सरस, सुकोमल, श्रेष्ठतम, सुन मारूति के बैन।
पवन तनय की ओर लख, बिहँसे करूणा-ऐन।।