मैँ कोई बडा आदमी नही हूँ
सोने की  कुरसी पर  बैठा बादशाह
सरकार संचालक प्रधानमन्त्री
कल – कारखानों का महामहिम  मालिक
मैं वैसा कुछ भी नही हूँ।
मैं फक़त  माँझी  हूँ माँझी।।।
मैं वैसा जानकार आदमी तो हूँ ही नहीं
जो  कि–
पाँचों  ओर से व्याख्या कर सकता है कोई
कागज़ी  धारा उपधारा का 
और अपने प्रत्येक अपराधिक कार्यव्यापार को  
संवैधानिक साबित कर सकता है।
मैं केवल मछली पकडनेवाला माँझी  हूँ माँझी
मुझे पता है– 
कैसा होता है मत्स्य न्याय।
मैं कोई चालाक प्राणी तो बन नहीं सका
पर चालाक मछलियां पकड सकता हूँ
मैं  तो सीधा साधा
मैं तो गुणवान
पानी के जितना ही साफ
आईने के जितना ही स्पष्ट
समुद्र के जितना ही शान्त
मैं माँझी हूँ माँझी
इसी  दलदली भूमि का आदिवासी।
यही घाट है मेरा स्वप्न बन्दरगाह।
मेरे चेहरे के चमक जैसी उड़ रही  भंवर 
वैसा ही कुरूप बन रही
यही तटक्षेत्र है मेरा– भूगोल।
मेरे उम्र की तरह निर्मम बह रही
वैसे ही व्यर्थ हो रही 
यही नदी है–मेरा देश। 
पहाड़  से  ऊँची ऊँची  लहरें हैं मेरी इच्छाएँ 
जो उठतीं  हैं–गिरतीं  है और बहतीं  हैं।
हर साल बाढ़ द्वारा चूमता   
सारंगी के तार जैसा खिरता 
यही किनार है मेरा– जीवन।
मैं माँझी  हूँ माँझी
पानी है मेरा अस्तित्व
कितने कोलम्बस तारे होंगे मैंने आरपार   
रोया हूँगा  कितने टाइटेनिकों की  श्रद्धान्जलि  में
रोके होंगे  कितने प्रलय मैंने जीवन के विरुद्ध  
सहे होंगे  कितने दुस्ख  महासागर के पानी समान।
नदी में पानी से ज्यादा खून का बहना 
रात का  पानी में चाँद का शिकार करना
नदी के गहरे गहरे
गहरे खन्दक से घूप का निकलना।
मै जानता हूँ
समुद्री लुटेरों द्वारा लूटी गई समुद्र की शान्ति
और इसी नदी में डुबा दी गयी मेरे आस्था की नाव।
मैं माँझी  हूँ माँझी
पानी में पैदा हुआ इंसान 
मुझे मालूम है कैसे तैरना होता है पानी में 
कैसे दिखाना होता है पानी के उपर कलाबाज़ी 
बाढ़  के  लाये गये इन  पत्थर – लट्ठों  से
कैसे बनाना होता है नया नाव
पानी की  किस गहराई से निकालनी होती है आग।