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स्नेह की एक रेख / कुमार मुकुल
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मैं
विश्वास का कैलाश उठाए
हिमालय से यहां तक
आ गया हूं मेरे दोस्त
मेरी अजानुभुजाएं सक्षम है इसे
सत्य की धरती पर
प्रतिस्थापित करने में
और इसे मैंने
अपना सर देकर नहीं
श्रम-स्वेद बहा अर्जित किया है
कि इस मरू को सब्ज देख सकूं
विष्णु का छल
अब मेरा बल घटा नहीं सकता
क्योंकि हमें समुद्र नहीं
एक और सुरसरि लानी है
ऐसे में मुझे
तुम्हारी टेक की नहीं
स्नेह की एक रेख की
जरूरत है .
1990