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कुछ बोल / इमरोज़ / हरकीरत हकीर
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आज उसे मिल रही थी
कई सालों बाद
सैर करते चुपचाप
देख-देख चलते जा रहे थे
इक जगह रूककर
मैंने कहा- कुछ बोल
कहने लगा मैं रौशनी में नहीं बोल सकता
यह फिकरा सुनते मुझे उम्र
हो चली है
गुस्से में मेरा दिल किया
सूरज को पकड़कर बुझा दूँ
न वह कभी कुछ बोला
न मैं सूरज बुझा पाई
अब अँधेरा हो चुका है
पर बोलने वाला ही न रहा