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कचहरी दीवान / प्रेमघन

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(१)

गयो कचहरी को वह गृह कहँ जहँ मुनसी गन।
लिखत पढ़त अरु करत हिसाब किताब दिये मन॥१४६॥

तिन सबको प्रधान कायथ इक बैठ्यो मोटो।
सेत केस कारो रंग कछु डीलहु को छोटो॥१४७॥

रूखे मुख पर रामानुजी तिलक त्रिशूल सम।
दिये ललाट, लगाये चस्मा, घुरकत हरदम॥१४८॥

पाग मिरजई पहिनि, टेकि मनसद परजन पर।
करत कुटिल जब दीठ, लगत वे काँपन थरथर॥१४९॥

बाकी लेत चुकाय छनहिं मैं मालगुजारी।
कहलावत दीवान दया की बानि बिसारी॥१५०॥

वाके सन्मुख सबै राखि रुख बचन उचारत।
जाय पीठ पीछे पै मन के भाव उघारत॥१५१॥

कहत लोग यह चित्र गुप्त को वंश नहीं है।
साच्छात ही चित्र गुप्त अवतार नयो है॥१५२॥

पूजा करत देर लौं बनत वैष्णव भारी।
पढ़ि रामायन रोवत है पै अति व्यभिचारी॥१५३॥

बिन पाये कछु नजर मिलावत नजर न लाला।
लाख बीनती करौ बतावत टालै बाला॥१५४॥

लिये हाथ मैं कलम कलम सिर करत अनेकन।
गड़बड़ लेखा करत सबन को धारि कसक मन॥१५५॥