Last modified on 29 अगस्त 2013, at 18:25

तमाम आतंकों के खिलाफ़ / रति सक्सेना

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:25, 29 अगस्त 2013 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

एक लाल सद्यजात आसमान
उनकी चोंच में दबा है
वे कोशिश कर रहे हैं
उसे टिका दें क्षितिज में
वे फड़फड़ाते हैं, उड़ते हैं
फिर टपक पड़ते हैं
लड़खड़ाते हुए आसमान के साथ

उन्हें याद भी नहीं कि वे कभी सफ़ेद थे
एकदम झक बर्फ़ के टुकड़े से
इस वक़्त वे अपने काले हुए परों को
गिरने से बचाते हुए
कोशिश कर रहे हैं कि
एक आसमान टिक जाए छत-सा
इस दुनिया के सिरे
तमाम आतंकों के खिलाफ़।