भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
त्यूँ तुम्ह कारनि केसवे / रैदास
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:28, 27 जनवरी 2008 का अवतरण
त्यूँ तुम्ह कारनि केसवे, अंतरि ल्यौ लागी।
एक अनूपम अनभई, किम होइ बिभागी।। टेक।।
इक अभिमानी चातृगा, विचरत जग मांहीं।
जदपि जल पूरण मही, कहूं वाँ रुचि नांहीं।।१।।
जैसे कांमीं देखे कांमिनीं, हिरदै सूल उपाई।
कोटि बैद बिधि उचरैं, वाकी बिथा न जाई।।२।।
जो जिहि चाहे सो मिलै, आरत्य गत होई।
कहै रैदास यहु गोपि नहीं, जानैं सब कोई।।३।।
।। राग रामकली।।