भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
संशय / रघुवीर सहाय
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:23, 27 जनवरी 2008 का अवतरण
तुम अप्रस्तुत ही रहोगे क्या मरण-पर्यन्त?
जब निकट होगा तुम्हारा बिन बुलाया अंत
आ रहा होगा विगत सुस्पष्ट तुमको याद
मन तुम्हारा स्वस्थ होगा बहु-दिनों के बाद
टंग गयी होंगी तुम्हारी पुतलियाँ निर्धूम
ऐंठती होगी तुम्हारी जीभ मुँह में घूम
कुछ कहोगे उस समय कोई सुसज्जित बात
या कहोगे - बीत जाने दो ना ये भी रात