है यह आजु बसन्त समौ, सु भरौसो न काहुहि कान्ह के जी कौ
अंध कै गंध बढ़ाय लै जात है, मंजुल मारुत कुंज गली कौ
कैसेहुँ भोर मुठी मैं पर्यौ, समुझैं रहियौ न छुट्यौ नहिं नीकौ
देखति बेलि उतैं बिगसी, इत हौ बिगस्यौ बन बौलसरी कौं।।
है यह आजु बसन्त समौ, सु भरौसो न काहुहि कान्ह के जी कौ
अंध कै गंध बढ़ाय लै जात है, मंजुल मारुत कुंज गली कौ
कैसेहुँ भोर मुठी मैं पर्यौ, समुझैं रहियौ न छुट्यौ नहिं नीकौ
देखति बेलि उतैं बिगसी, इत हौ बिगस्यौ बन बौलसरी कौं।।