भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आया के प्रति / अलेक्सान्दर पूश्किन
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:24, 25 दिसम्बर 2009 का अवतरण
|
मेरे बुरे दिनों कि साथी, मधुर संगिनी
बुढ़िया प्यारी, जीर्ण-जरा!
सूने चीड़ वनों में तुम्हीं राह देखतीं
कब से मेरी, नज़र टिका।
पास बैठकर खिड़की के भारी मन से
तुम पहरेदारी करतीं।
और सिलाइयाँ दुर्बल हाथों में तेरे,
कुछ क्षण को धीमी पड़तीं।
टूटे-फूटे फाटक से अँधियारे पर
दॄष्टि तुम्हारी जम जाती,
और किसी बेचैनी, चिन्ता, शंका से
हर पल धड़क उठे छाती,
कभी तुम्हें लगता है जैसे छाया-सी
सहसा है सम्मुख आती...
रचनाकाल : 1826