Last modified on 5 जून 2010, at 21:45

ऊब / मदन कश्यप

यह कैसी ऊब है
लद्धड़ धूप में रेत पर निकल आए घड़ियाल की तरह
भयावह और निश्चिंत
टसकने का नाम ही नहीं लेती

दर्द की गति इतनी धीमी है कि पता ही नहीं चलता
यह बढ़ रहा है या घट रहा है

उफ! यह फूल पिछले कई दिनों से
इसी तरह खिला है

एक के बाद एक
बेजान मौसमों को कैसे झेलती जा रही है धरती

न पीछे का कुछ याद आता है
न आगे का कुछ सूझता है
बस यह समय है और इसे काटना है

कोई फर्क नहीं
एक अतिप्राचीन हठीले ठहराव
और पदार्थहीन बना देने वाली इस तेज रफ्तार में

यहाँ क्रिया ही क्रिया है
पर कर्ता गायब
और कर्म का तो कोई ठिकाना ही नहीं
हर वह आदमी तेज-तेज भाग रहा है
जिसे कहीं नहीं जाना है!