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ऊब / मदन कश्यप
Kavita Kosh से
यह कैसी ऊब है
लद्धड़ धूप में रेत पर निकल आए घड़ियाल की तरह
भयावह और निश्चिंत
टसकने का नाम ही नहीं लेती
दर्द की गति इतनी धीमी है कि पता ही नहीं चलता
यह बढ़ रहा है या घट रहा है
उफ! यह फूल पिछले कई दिनों से
इसी तरह खिला है
एक के बाद एक
बेजान मौसमों को कैसे झेलती जा रही है धरती
न पीछे का कुछ याद आता है
न आगे का कुछ सूझता है
बस यह समय है और इसे काटना है
कोई फर्क नहीं
एक अतिप्राचीन हठीले ठहराव
और पदार्थहीन बना देने वाली इस तेज रफ्तार में
यहाँ क्रिया ही क्रिया है
पर कर्ता गायब
और कर्म का तो कोई ठिकाना ही नहीं
हर वह आदमी तेज-तेज भाग रहा है
जिसे कहीं नहीं जाना है!