भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ओंळू री धरती माथै /मदन गोपाल लढ़ा

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:54, 16 अक्टूबर 2013 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अणसैंधे मारग
चालतां
चेतै आवै
अलेखूं उणियारा
जंका रै सांच री
साख भरै ओळूं
सबूत है सबद
बां रै वजूद रो

डग-मग डोलतो जीव
हियै रै आंगणै
झोला खावै,
लारै भागै
एक अणखावणी छिंया
दड़ाछंट ।

खुदोखुद सूं भाजतो जीव
अंतस री आरसी में सोधै
अणसैधां उणियारा
अर बांचै
ओळूं री धरती माथै
जूण रा आखर ।