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सखी! मोहिं प्रिय की सुरति सतावै / स्वामी सनातनदेव

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राग विभास, तीन ताल 11.9.1974

सखी! मोहिं प्रिय की सुरति सतावै।
चढ़ी रहत चितपै वह मूरति, रैन-दिवस चित चैन न पावै॥
व्रज तजि जब सों गये मधुपुरी, कोउ न उनकी कुसल सुनावै।
तू ही बता, व्यथा या मन की कैसे ऐसे सखी! सिरावै॥1॥
तन व्रजमें पै मन मोहन में, यह विरहा नित जीव जरावै।
का कबहूँ निज दरस-सुधा दै प्रियतम मन की अगिनि बुझावै॥2॥
बिना स्याम अब काय रह्यौ का, भलै देह यह खेह समावै।
जब-जब बिधना देय देह तो अवसि-अवसि मोहिं स्याम मिलावै॥3॥
स्याम बिना सब सूनो लागत, स्यामहि को बस संग सुहावै-
तो मरि-मरि यह जीव देह काहे न नित प्रीतम ही पावै॥4॥
स्याम मिलें तो या जीवनसों सौगुन मोहि मरन ही भावै।
कहा विधाता सुनिहै मेरी, अथवा योंही जीय जरावै॥5॥
पै स्यामहिं सुहाय जो यह दुख तो मोकों सुख नैंकु न आवै।
जनम-जनम मैं रहूँ विरहिनी, भलै जरूँ, पै पिय सुख पावै॥6॥

शब्दार्थ
<references/>