Last modified on 20 सितम्बर 2009, at 19:25

मुख मलीन मृग लोचन शुष्क / बाबू महेश नारायण

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:25, 20 सितम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बाबू महेश नारायण }} {{KKCatKavita‎}} <poem> मुख मलीन मृग लोचन श...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मुख मलीन मृग लोचन शुष्क
शशि की कला में बहार नहीं थी;
लब दबे यौवन उभरे
रति की छटा रलार नहीं थी।
गरभ, हवस, अफ्सोस, उम्मीद,
प्रेम-प्रकाश, भय चंचल चित
थे यह सब रुख़ प, नुमायां उसके,
कभी यह कभी वह,
कभी वह कभी यह,
मुख चन्द्र निहार हो यह विचार कि प्रेम करूं दया दिखलाऊं।