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अपने सोच को सोचता है एक 'मैं' / कुंवर नारायण

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अपने सोच को सोचता है एक 'मैं'
अपने को अनेक साक्ष्यों में वितरित कर

वह एक 'लघु अहं' में सीमित
बचकाना अहंकार मात्र?
या एक जटिल माध्यम
लाखों वर्षों में विकसित
असंख्य ब्रह्माण्डों से निर्मित
महाप्राण
समस्त प्राणि-जगत में व्याप्त?

समयातीत और स्थानातीत
सूक्ष्म और अत्यन्त जटिल
स्नायु-तन्तुओं से बुनी
एक ऐसी स्वैच्छिक व्यवस्था
जिसमें संरचित है
वह भी
और वे भी

जो अर्द्धाक्षर भी है और पूर्ण भी,
जो एक वार्तालाप भी है
और आत्मालाप भी।

इस 'सन्धि' का विच्छेद
उसे विस्फ़ोटक बना सकता है!

विचाराधीन था
जीवन का रहस्य।

काल का यथार्थ
तत्काल स्थगित था।

पाँच तत्वों के बहुमत से निर्मित
स्थूल के घनत्व का दावा
स्पष्ट और प्रत्यक्षदर्शी था।

"भ्रामक है यह दबाव,"
एक निष्पक्ष तत्त्वदर्शी ने कहा,
"यह दबाव तात्त्विक नहीं
केवल सांयोगिक है!"

आपत्ति इतनी सूक्ष्म थी
कि लगभग अदृश्य,
हर ठोस सवाल के आरपार निकल जाती।

कोई बोल रहा था
नपी-तुली तर्कसंगत भाषा में
पैतृक-दाय और वाणिज्य पर
एक पुत्र के जन्मसिद्ध अधिकार को लेकर
कि बात जन्म पर अटक गई।

हर तत्त्व को अमान्य था
धरती,पानी, हवा, आकाश पर
किसी भी जीव का एकाधिकार

एकाधिकार के दावेदार पर
कई हत्याओं के आरोप थे-

पारिवारिक
सामाजिक
नैतिक
राजनीतिक

आरोपियों को सिद्ध करना था
कि उनके भविष्य ख़तरे में हैं,
दावेदार को सिद्ध करना था
कि आरोपी सुरक्षित हैं।

वह हार गया
क्योंकि उसके दावे
सन्देहास्पद थे :

आरोपियों को सन्देह-लाभ मिला
क्योंकि उनके प्रमाण-पत्र उनके साथ थे।

'अन्तों' से नहीं
'मध्यान्तरों' से
बदलते हैं दृश्य।

ओस की बूँदों में टँकी
बूँद-बूँद रोशनी! उठता
तारों का वितान।
निकलती एक दूसरी पृथ्वी,
जगमगाता एक दूसरा आसमान