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जेठ का जुल्म / केदारनाथ अग्रवाल
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आग लगी है
सिर के ऊपर चढ़े सूर्य में
जेठ का जुल्म
जमीन की जवानी जलाए है
प्यासा खड़ा है
दिन का सूखा पहाड़
ओस के आसरे में
गह्वर मुँह बाए
मेघ का नहीं
ताप का तपा पानी
रेत पर रेंगता
सिसकता है
रचनाकाल: २६-०५-१९७३