भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नया दौर / वाज़दा ख़ान
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:05, 21 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वाज़दा ख़ान |संग्रह=जिस तरह घुलती है काया / वाज़…)
बीनती हू~म तुमसे अपने सपने
लेकर उन्हें आकाश में भरती हूँ उड़ान
उन्मुक्त स्वतन्त्र
तुम्हारी ढेर सारी प्रेम हिदायतों के साथ
जहाँ सितारों को हथेलियों में भरकर
उनसे लिखती हूँ बादलों पर
एक श्वेत कविता
"तुम मेरे संवेदना पुरुष हो"
टटोलती हूँ इन शब्दों को अपने भीतर
प्रचंड वेग से घुमड़ती रक्त शिराओं
के संग अवशेष बन चुकी
उन ख़्वाहिशों में जो ज़ाहिर करतीं
हैं आइने का पीलापन
पीलापन शनैः-शनैः छाने
लगता सम्पूर्ण वजूद पर
तब जैसे ज़िन्दगी हल जाती है
एक मुजस्समे में,
कभी-कभी
वह पीलापन समेट लेते हो तुम
अपने दमन में, डाल्देते हो उन्हें
मुझसे बहुत दूर ब्रह्माण्ड के
दूसरे छोर पर, फिर देते हो
मुझे एक नई लालिमा /नई किरन/
नया दौर ।