तुम्हारी समंदर-सी गहरी आँखोँ में,
फेंकता पतवार मैं, उनींदी दोपहरी मेँ -
उन जलते क्षणोँ में, मेरा ऐकाकीपन
और घना होकर, जल उठता है - डूबते माँझी की तरह -
लाल दहकती निशानियाँ, तुम्हारी खोई आँखोँ में,
जैसे दीप-स्तंभ के समीप, मंडराता जल !
मेरे दूर के सजन, तुम ने अँधेरा ही रखा
तुम्हारे हावभावों में उभरा यातनों का किनारा -
 
अलसाई दोपहरी में, मैं, फिर उदास जाल फेंकता हूँ -
उस दरिया में, जो तुम्हारे नैया से नयनोँ में कैद है !
रात के पँछी, पहले उगे तारों को, चोंच मारते हैँ -
और वे, मेरी आत्मा की ही तरहा, और दहक उठते हैँ !
रात, अपनी परछाईं की ग़्होडी पर रसवार दौडती है,
अपनी नीली फुनगी के रेशम - सी लकीरों को छोडती हुई !
बुझते चिरागोँ से उठता धुँआ 
कह गया .. अफसाने, रात के 
कि इन गलियोँ मेँ कोई .. 
आ कर,... चला गया था .. 
रात भी रुकने लगी थी, 
सुन के मेरी दास्ताँ 
चाँद भी थमने लगा था 
देख कर दिल का धुँआ 
बात वीराने मे की थी, 
लजा कर दी थी सदा 
आप भी आये नही थे, 
दिल हुआ था आशनाँ .. 
रात की बातोँ का कोई गम नहीँ 
दिल तो है प्यासा, कहेँ क्या , 
आप से, ...अब .. .हम भी तो 
हैँ हम नहीँ !