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दुराव / महेन्द्र भटनागर

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चांद को छिप-छिप झरोखों से सदा देखा किया
और अपनी इस तरह आँखें चुरायीं चांद से !

चांद को झूठे सँदेसे लिख सदा भेजा किया
और दिल की इस तरह बातें छिपायीं चांद से !

चांद को देखा तभी मैं मुसकराया जानकर
और उर का यों दबाया दर्द अपना चांद से !

लाख कोशिश की मगर मैं चांद को समझा नहीं
और पल भर कह न पाया स्वर्ण-सपना चांद से !

भूल करता ही गया अच्छा-बुरा सोचा नहीं
प्यार कर बैठा किसी के, चिर-धरोहर, चांद से !

युग गुज़रते जा रहे खामोश, मैं भी मौन हूँ ;
क्योंकि अब बातें करूँ किस आसरे पर चांद से !