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कवितावली/ तुलसीदास / पृष्ठ 20

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(लंकादहन -3)


काननु उजार्यो तो उजार्यो, न बिगार्यो कछु,

बानरू बेचारो बाँधि आन्यो हठि हारसों।

निपट निडर देखि काहू न लख्यो बिसेषि,
 
दीन्हो ना छड़ाइ कहि कुलके कुठारसों ।

छोटे औ बड़ेरे मेरे पूतऊ अनेरे सब,

साँपनि सों खेलैं, मेलैं गरे छुराधार सों।।

‘तुलसी’ मँदोबै रोइ-रोइ कै बिगोवै आपु,
 
 बार -बार कह्यों मैं पुकारि दाढ़ीजारसों।11।