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कवितावली/ तुलसीदास / पृष्ठ 21

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(लंकादहन -4)

(5 - छंद 16 से 20)

लपट कराल ज्वालजालमाल दहूँ दिसि,
 धूम अकुलाने, पहिचानै कौन काहि रे।

पानी को ललात बिललात , जरे गात जात,
 परे पाइमाल जात ‘भ्रात! तूँ निबाहि रे’।

 प्रिया तूँ पराहि, नाथ, तूँ पराहि, बाप!
बाप तूँ पारहि, पूत! पूत! तूँ पराहि रे।।

‘तुलसी’ बिलोकि लोग ब्याकुल बेहाल कहैं ,
 लेहि दससीस अब बीस चख चाहि रे।16।

बीथिका बाजार प्रति, अटनि अगार प्रति,
पवरि-पगार प्रति बानरू बिलोकिए।

अध-ऊर्ध बानर, बिदिसि-दिसि बानरू है,
मानेा रह्यो है भरि बाररू तिलोकिएँ।।

मूँदैं आँखि हिय में, उघारें आँखि आगें ठाढ़ो,
 धाइ जाइ जहाँ-तहाँ, और कोऊ कोकिए।

लेहु, अब लेहु तब कोऊ न सिखाबो मानेा,
 सोई सतराइ जाइ जाहि-जाहि रोकिए।17।