Last modified on 5 मई 2010, at 14:20

पिता के बाद / रमेश प्रजापति

सम्यक (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:20, 5 मई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश प्रजापति }} {{KKCatKavita}} <poem> कुछ दिन छत पर उतरे परिन…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कुछ दिन
छत पर उतरे परिनदे
गिलहारी की उदास पनियाली आँखें
डबडबाती रही घर के सूनेपन में
पेड़ से टपके गूलर
सूखते रहे आँगन में
माँ की सूनी कलाइयों में
खनकता रहा चूड़ियों का खालीपन
पिता के बाद
छोटी बेटी की वीरान आँखें ढूँढती रही
कँधों का झूला
चाक से उतरकर आँगन में चहकती रही
खिलौनों की खिलखिलाहट
खाट के पास खड़ा हुक्का
त्रसता
पिता के बाद
मुँडेर पर बैठी गौरैयाँ
पुकारती रही पिता को
आँगन में टहलती रही
पिता की चिंतामग्न चहलकदमी
पृथ्वी-सा टिका चाक
अपनी घुरी पर
एकटक निहारता रहा मुँह लटकाए
ध्रुव तारे को
चितकबरी गाय
अपने नथूनों से स्ूँाघती रही सानी में
पिता की उँगलियों का स्पर्श
पिता के बाद
लचीला हो गया घर का कायदा-कानून
कपूर-से उड़े मेरे बेवक्त
घर लौटने के डर के बावजूद
दौड़ता है मेरी रगों में
पिता के उसूलों का रक्त
जो बचाए रखता है आज भी
मेरे अंदर पिता का होना।