Last modified on 15 जुलाई 2009, at 00:38

इन दिनों / एम० के० मधु

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:38, 15 जुलाई 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=एम० के० मधु |संग्रह=बुतों के शहर में }} <poem> इन दिनो...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

इन दिनों
मेरी परछाइयाँ हिल रही हैं
इन दिनों
शब्द मेरे गडमड हो रहे हैं

इन दिनों
हर आहट पर
मेरी आँखें
खिड़की से फिसलकर
दरवाज़े तक चली जाती हैं

इन दिनों
सड़क का शोर
अनसुना लगता है

इन दिनों
आकाश में उड़ती पतंगें
लगता है मेरे लिए उड़ी है…
कट कर गिरती हैं
तो लगता है
मेरे लिए गिरी हैं

इन दिनों
बहुत अच्छा लगता है
घुटर-घूँ घुटर-घूँ करता
पड़ोसी की दीवार पर
कबूतर का जोड़ा

आधा रास्ता चल लेने पर भी
मन बार-बार
लौट जाने को करता है
इन दिनों…