भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दफ़्तर के बाद-३ / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:35, 19 दिसम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश रंजक |संग्रह=गीत विहग उतरा / रम...' के साथ नया पन्ना बनाया)
टुकड़े-टुकड़े,
-आ कर जुड़े
आदमक़द हो गए
फिर हम
निचुड़े-निचुड़े
टुकड़े-टुकड़े ।
सीधी कर झुकी कमर
हाथ-पाँव फैलाए
छोड़ी कुर्सी
मृत दिन की चिता जला
दृष्टि घुमायी, तोड़ी
मातमपुर्सी
मुँस से तरीख़ नोंच कर
कहकहे उड़े
आदमक़द हो गए
फिर हम
सिकुड़े-सिकुड़े
टुकड़े-टुकड़े...