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दिन अधमरा देखने / रमेश रंजक

     दिन अधमरा देखने
      कितनी भीड़ उतर आई
      मुश्किल से साँवली सड़क की
      देह नज़र आई ।

कल पर काम धकेल आज की
चिन्ता मुक्त हुई
खुली हवाओं ने सँवार दी
तबियत छुइ-मुई

      दिन की बुझी शिराओं में
      एक और उमर आई ।

फूट पड़े कहकहे,
चुटकुले बिखरे घुँघराले
पाँव, पंख हो गए
थकन की ज़ंजीरों वाले

      गंध पसीने की पथ भर
      बतियाती घर आई