भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नौ बजे का सायरन / रमेश रंजक

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:55, 26 दिसम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश रंजक |संग्रह=हरापन नहीं टूटेग...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह नौ बजे का सायरन
कस गया तसमे,
कसा सारा बदन

कस गए लो पाँव के पहिए
हड्डियों का साथ लोहे से
इसे मजबूरियाँ कहिए

चार छीटें डाल कर
जूठे किए बरतन

हम हुए हाँ और ना के यंत्र
चढ़ गया हलके मुलम्मे की तरह
                            जनतंत्र

कुर्सियों के सामने पानी
घंटी बजा कर इंजन