भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह इतनी बड़ी अनजानी दुनिया / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Sumitkumar kataria (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 20:06, 17 जनवरी 2008 का अवतरण (संग्रह का लिंक डाला है)

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह इतनी बड़ी अनजानी दुनिया है

कि होती जाती है,

यह छोटा-सा जाना हुआ क्षण है

कि हो कर नहीं देता;

यह मैं हूँ

कि जिस में अविराम भीड़ें रूप लेती

उमड़ती आती हैं,

यह भीड़ है

कि उस में मैं बराबर मिटता हुआ

डूबता जाता हूँ;

ये पहचानें हैं

जिन से मैं अपने को जोड़ नहीं पाता

ये अजनबियतें हैं

जिन्हें मैं छोड़ नहीं पाता ।


मेरे भीतर एक सपना है

जिसे मैं देखता हूँ कि जो मुझे देखता है, मैं नहीं जान पाता ।

यानी कि सपना मेरा है या मैं सपने का

इतना भी नहीं पहचान पाता ।


और यह बाहर जो ठोस है

(जो मेरे बाहर है या जिस के मैं बाहर हूँ ?)

मुझे ऐसा निश्चय है कि वह है, है;

जिसे कहने लगूँ तो

यह कह आता है

कि ऐसा है कि मुझे निश्चय है !