भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह इतनी बड़ी अनजानी दुनिया / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह इतनी बड़ी अनजानी दुनिया है
कि होती जाती है,
यह छोटा-सा जाना हुआ क्षण है
कि हो कर नहीं देता;
यह मैं हूँ
कि जिस में अविराम भीड़ें रूप लेती
उमड़ती आती हैं,
यह भीड़ है
कि उस में मैं बराबर मिटता हुआ
डूबता जाता हूँ;
ये पहचानें हैं
जिन से मैं अपने को जोड़ नहीं पाता
ये अजनबियतें हैं
जिन्हें मैं छोड़ नहीं पाता ।

मेरे भीतर एक सपना है
जिसे मैं देखता हूँ कि जो मुझे देखता है, मैं नहीं जान पाता।
यानी कि सपना मेरा है या मैं सपने का
इतना भी नहीं पहचान पाता।

और यह बाहर जो ठोस है
(जो मेरे बाहर है या जिस के मैं बाहर हूँ?)
मुझे ऐसा निश्चय है कि वह है, है;
जिसे कहने लगूँ तो
यह कह आता है
कि ऐसा है कि मुझे निश्चय है!