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दाग / जयप्रकाश मानस

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इस समय

नहीं दीख रहा कछुए का श्रीमुख

मेंढक भी थक चुके टर्रा-टर्रा कर

नावें थिरक गयी हैं डाल लंगर

सपनों के लिए चली गईं मछलियाँ

गहराइयों में

सीप भी अचल आँखें खोले तटों में

घुस गए हैं केंचुए गीली मिट्टियों में

समुद्र की समूची देह पर

जागती है चाँदनी

चाँद नहीं है समुद्र में

लेकिन देखने वाले

देख ही लेते हैं

दाग़ सिर्फ़ दाग़