उधवा / शब्द प्रकाश / धरनीदास
नारि पुरुष-समतूल, चले नहि पाव पियादे।
सतिवन्ता अति दून, खाहिँ सो आधे आधे॥
तीन पुरुष समतूल होय, तब सेज सुतावहिँ।
अन्तरिक्ष जोरियहि, वहुरि जन दुइ विगरावहिँ॥1॥
नारि एक संसार-पियार। पाँच भरतार करै बरियारी।
जो ना बूझै हारै होड़। आन अंग नहि बाइस गोड॥2॥
रुख ना विरिछ बसै तँह सूगा। अंग विराजे पहिरे लूगा॥
मुखपर मासा लच्छन मान। जो बूझे सो बड़ा सयान॥3॥
राव अकेल रहै गढ़ माँह, आप सँवारे वेल सै छाँह।
बूझो यार लगैन चोट, भीतर खन्दक बहार कोट॥4॥
नारि एक बहुतन सुखदाई। पिये न पानि पेट भर खाई।
चार महीना ताकर चाव। पँचये मास रहे की जाव॥5॥
यव भर ताजन गज भर डंडी। वरनीदास पेहानी मंडी।
बिनाबीज एक जमै जुआरी। नाहर चले न परै कुदारी॥
उपजै सघन कियारी छोटी। सात हाथ होय ताकर रोटी॥6॥
देखो यारो अजब तमाशा। कन्या लाँगट वर वहुआसा॥7॥
एक गज पुरुष सात गजनारी। पंडित होय सो लेय वियारी॥8॥
जूथ एक अपने मग आव। सात पाँच मिलि करेँ वधाव।
घर आँगनकी लेँहि बुलाय। हाथहिँ माँगे दाम चुकाय॥9॥
एक वस नगर एक वस पानी। एक घरमेँ एक बनै सयानी।
खेडा भेडा ओदर मांह। आठो मीत जानि लेहु ताह॥10॥
बुझै मनोहर यहै पेहानी। कहतहि मिलै दूध अरु पानी।
हाथी चढ़िकै मोल विकाय। उँहवाँ होय तो देहु पठाय॥11॥
धरनी देखो धरनि मेँ, एक अजूबा वात।
सुखहि सुने दुख होत है, कठिन कही नहि जात॥12॥