(१)
गयो कचहरी को वह गृह कहँ जहँ मुनसी गन।
लिखत पढ़त अरु करत हिसाब किताब दिये मन॥१४६॥
तिन सबको प्रधान कायथ इक बैठ्यो मोटो।
सेत केस कारो रंग कछु डीलहु को छोटो॥१४७॥
रूखे मुख पर रामानुजी तिलक त्रिशूल सम।
दिये ललाट, लगाये चस्मा, घुरकत हरदम॥१४८॥
पाग मिरजई पहिनि, टेकि मनसद परजन पर।
करत कुटिल जब दीठ, लगत वे काँपन थरथर॥१४९॥
बाकी लेत चुकाय छनहिं मैं मालगुजारी।
कहलावत दीवान दया की बानि बिसारी॥१५०॥