भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

परतंत्रता की गाँठ / गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:25, 21 अगस्त 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' }} <poem> बीतीं दासता में पड़…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बीतीं दासता में पड़े सदियाँ, न मुक्ति मिली
पीर मन की ये मन ही मन पिराती है

देवकी-सी भारत मही है हो रही अधीर
बार-बार वीर ब्रजचन्द को बुलाती है

चालीस करोड़ पुत्र करते हैं पाहि-पाहि
त्राहि-त्राहि-त्राहि ध्वनि गगन गुंजाती है

जाने कौन पाप है पुरातन उदय हुआ
परतन्त्रता की गाँठ खुलने न पाती है