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मैं लिखूँगा गीत / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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मैं लिखूँगा गीत, तुम गाना, अमर हो जायँगे हम।
बह रहा है मंद-मंद समीर कलियाँ झूमती हैं,
उर्मियाँ शरमा रहीं, मुसका रहीं, तट चूमती हैं।
रश्मियाँ भर माँग इनकी सृष्टि एक बसा रही हैं,
विहग-बालाएँ बजा शहनाइयाँ मिल गा रही हैं।
कर दिये अपने निछावर गगन ने अनमोल मोती,
मुसकराती धरणि चुन-चुन सुमन की माला पिरोती।
प्रात की यह मधुर बेला
मैं बनूँगा फूल, तुम खिलना, अमर हो जायँगे हम॥1॥

आ गया बढ़ता गगन की राह पर ऊपर दीवाकर,
रश्मियाँ बरसा रही हैं अग्नि का सागर धरा पर।
सृष्टि सारी अवनि-अम्बर तक अवाँ-सी जल रही है,
एक भी पत्ता किसी तरु का कहीं हिलता नहीं है।
हैं रुके पंछी कहीं तरु-कोटरों की छाँह में जा,
छाँह है सिमिटी स्वयं तरु की भुजा की छाँह में आ।
तप्त इस मध्याह्न में प्रिय
मैं बनूँगा वायु, तुम बहना, अमर हो जायँगे हम॥2॥

ढल रहा है रवि, क्षितिज के वक्ष पर रजनी झुकी है,
मधु मिलन की शुभ लगन गोधूलि-बेला आ चुकी है।
तारकों से झलमलाती स्वर्ग ने साड़ी मँगाई,
सरित् ने दर्पण दिखाया, निशि तनिक कुछ मुसकराई।
माँग भर दी साँझ ने, संसार ने बाजे बजाये,
चाँदनी लज्जित हुई छवि देख अपना मुँह छिपाये।
इस मिलन के पुण्य क्षण में
मैं बनूँगा दीप, तुम जलना, अमर हो जायँगे हम॥3॥