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गाँव की नदी / गोविन्द कुमार 'गुंजन'

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पहले
नदी बहती थी गाँव से बाहर
फिर गाँव नदी में बहा
भले ही नदी के बारे में
किसी ने कुछ नहीं कहा

गाँव
तैरता भी था नदी में
बरसातों में डूबता भी था
लड़कियां वहीं से भरती थी पानी
वहीं था लड़कपन
वहीं थी नादानी

धोबी
पछीट पछीट कर धोते थे कपड़े
उसी की रेत से बनते थे घर
उसी के ऑगन मंे उतरते थे
गणगौर के रथ
सजीली रणुबाई खिलखिलाती थी वहां

रेत पर बिखरती थी धानी चावल की
जो फूलों की तरह महकती थी
वहीं तरबूज के घरौदों में
लुकती छुपती थी नदी

नदी
खुद कभी जाती नहीं थी गाँव में
मगर गाँव के लोग
अपनी अर्थियां तक ले जाते थे वहां

वहां से
उसे मिलती थी जिंदगी
मिलती थी प्रेम कथाएं
घरों के नक्शे
बच्चों के घरौंदे
सीप, शंख, रंगीन पत्थरों के टुकडें
महादेव की पिडिंयां
और भी बहुत कुछ

नदी
गाँव की नसों में
बहती थी खून सी
नदी गाँव के दिल में
रहती थी सकून सी

मगर गाँव में रहने वाला
एक आदमी भी था वहां
जिसके बोले हुए सफेद झूठ भी
अक्सर सच हो जाते थे
वह कहता था
यह नदी हर साल लेती है एक बलि,

कई बार
ऐसा भी हुआ कि एक बरसात में
किसी बूढ़ी औरत का इकलौता बेटा
इसकी बाढ़ में बह गया
उसकी लाश दूसरे गाँव के किनारे मिली

आप माने या ना माने,
वह कब्रिस्तान के आसपास रहने वाला
आदमी अक्सर सफेद झूठ कहता है,
यह अलग बात है कि वह सच हो जाता है

कोई नहीं मानता उसकी बातें
हर सुबह जाता है गाँव की नदी के पास

उसमें डूबता है
उसमें तैरता है
उसे प्यार करता है

सुबह से शाम तक
गाँव के पास सैकड़ों बहाने हैं
नदी के पास जाने के
उसे मिलते ही रहते है आमंत्रण आने के
नदी
बहती होगी अकेली गाँव से बाहर
मगर गाँव नदी के साथ साथ बहता है

नदी
गाती होगी चॉंदनी रातों में
और अमावस के अॅंधेरों में भी

मगर अपने हर गीत में
वह सिर्फ गाँव को ही पुकारती है
सिर्फ गाँव को ही देती है आवाज