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ऐ दिल नाहक़ रंज न कर तू / सुरेश चन्द्र शौक़

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ऐ दिल नाहक़ रंज न कर तू कट ही जायेगी तन्हाई

उन की यादों की महफ़िल हो तो फिर काहे की तन्हाई


उनसे बिछड़े सदियाँ बीतीं केकिन अब तक है यह आलम

चारों सम्त वही सन्नाटा चारों सम्त वही तन्हाई


प्यार में दो पल हँसने वालो आख़िरकार वही होना है

फ़ुर्क़त, आँसू, आहें, टीसें, सदमे ,ख़ामोशी ,तन्हाई


महफ़िल का सामान था क्या—क्या, लेकिन दिल तन्हा का तन्हा

तेरी गली से मयख़ाने तक मेरे साथ चली तन्हाई


तेरी लगन का भूला सब कुछ, होश नहीं है मुझको अब कुछ

क्या है क़ुर्बत, कैसी फ़ुर्क़त, क्या महफ़िल, कैसी तन्हाई


कभी—कभी तो माल की रौनक़ से भी दिल उकता जाता है

कभी—कभी अच्छी लगती है अपने कमरे की तन्हाई


ऐ दिल इससे क्या होगा जो पल दो पल को मिल भी गये वो

उसके बाद वही हम होंगे और वही अपनी तन्हाई


होंठों की मुस्कान से ख़ुशियों का अंदाज़ा क्या करते हो

काश कभी महसूस करो तुम मेरे अंदर की तन्हाई


आज बहुत एहसास था मेरे सूनेपन का तन्हाई को,

मुझसे लिपट कर फूट के रोई, आहों में डूबी तन्हाई


उनसे जुदा होने की साअत जब भी मुझे याद आ जाती है

और भी तन्हा हो जाती है शौक़ मेरे दिल की तन्हाई


फ़ुर्क़त=विरह;मयख़ाना=मधुशाला;क़ुर्बत=सामीप्य; साअत=क्षण