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चम्पा-सी देह / नीरजा हेमेन्द्र

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उस पथ पर मैं
पुनः चलने लगी हूँ
उन स्मृतियों में मैं
पुनः विलीन होने लगी हूँ... ...
जहाँ तुम थे, मैं थी और थे
कुछ पुश्प चम्पा के
मुझे ज्ञात नहीं ये पथ
तुम तक जाएगा या कि नही
किन्तु मैं चलती जा रही हूँ
कदाचित् तुम
मुझे मिल जाओ
पथ के अन्तिम छोर पर
मेरे साथ हैं कुछ धुँधले
युवा-से दिन
कुछ स्वच्छ स्मृतियाँ
देह में सिहरन भरती पवन
कुछ पुश्प चम्पा के
जो तुमने मेरी हथेली पर रख कर
मुट्ठी बन्द कर दिया था
वो अब भी बन्द हैं
मेरी मुट्ठी में
पुश्पित सुगन्ध से भरे
संध्या काल के निर्जन सन्नाटे में
जब चलेंगी सिहरन भर देने वाली
सर्द हवायें
आसमान से धीरे-धीरे
उतरेगा गहन अँधेरा
तब मैं खोलूँगी अपनी बन्द मुट्ठी
चम्पा के श्वेत पुश्पों से निकलते
प्रकाश पुन्ज में
तलाश लूंगी अपना पथ
फैल जाएगी
चम्पा की गन्ध चहुँ ओर
तुम्हारी उजली स्मृतियाँ...