किससे बात करें / देवेन्द्र आर्य
उँगली पर गिनना पड़ता है
किससे बात करें!
पढ़ने-लिखने वाले सब हैं सोचने वाले गिने-चुने
उद्धरणों से भरे रिसाले दिल के हवाले गिने-चुने
अर्थ कभी होते होंगे शब्दों के
अब बस क़ीमत है
सबके सब गुलदस्तों जैसे ज़हर के प्याले गिने-चुने
भाड़ में जाएँ कबीर निराला
क्यों कवि ही हो ग़ैरतवाला
अपने में फूला है आग बबूला है हर कोई यहाँ
हर कोई तिरछा पड़ता है
किससे बात करें।
बिन पगार वे पनप रहे हम मरखप के भी हैं निर्धन
वे कट ग्लासों की क्राकरियाँ हम कुम्हार के हैं बर्तन
मौलिकता है घालमेल की डुप्लीकेटों के युग में
हम हैं गली खड़ंजे वाली वे मोज़ेक के हैं आँगन
एक नहीं नाना प्रकार के
बैठे हैं सब कुछ डकार के
उनको अपनी आँख का माड़ा कभी नहीं दिखता लेकिन
औरों का काजल गड़ता है
किससे बात करें!