भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
...तो जानूँ / जानकीवल्लभ शास्त्री
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:47, 11 जुलाई 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जानकीवल्लभ शास्त्री |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
तीखे काँटों को
फूलों का श्रृंगार बना दो तो जानूँ।
वीरान ज़िन्दगी की ख़ातिर
कोई न कभी मरता होगा,
तपती सांसों के लिए नहीं
यौवन-मरु तप करता होगा,
फैली-फैली यह रेत।
ज़िन्दगी है या निर्मल उज्ज्वलता?
निर्जल उज्ज्वलता को जलधर,
जलधार बना दो तॊ जानूँ।
मैं छाँह-छाँह चलता आया
अकलुष प्रकाश की आशा में,
गुमसुम-गुमसुम जलता आया :
उजलूँ तो लौ की भाषा में।
औंधा आकाश टँगा सर पर,
डाला पड़ाव सन्नाटे ने,
ठहरे गहरे सन्नाटे को
झंँकार बना दो तो जानूँ।