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ज़िल्लत की रोटी (कविता) / मनमोहन

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पहले किल्लत की रोटी थी
अब ज़िल्लत की रोटी है

किल्लत की रोटी ठंडी थी
ज़िल्लत की रोटी गर्म है
बस उस पर रखी थोड़ी शर्म है
थोड़ी नफ़रत
थोड़ा ख़ून लगा है
इतना नामालूम कि कौन कहेगा ख़ून लगा है

हर कोई यही कहता है
कितनी स्वादिष्ट कितनी नर्म कितनी ख़ुशबूदार होती है
यह ज़िल्लत की रोटी