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विस्तार / विजयाराजमल्लिका / सन्तोष कुमार
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सुनो मेरे बच्चे, आओगे क्या आज रात खाने पर ?
त्योहार है ना
और क्रिसमस ट्री भी तो सजाना है
कब से राह देख रही हूँ
बता, किस नाम से पुकारूँ तुझे
तुम अपनों को … अजनबियों को
जिनके लिए हज़ारों दुआओं में
मैंने माँगी एक ही बात
कि वे अब तो समझ लें
जिन्होंने समय रहते न जाना
और बिन समझे ही भुला दिया
मेरी भावनाओं के अर्थ और विस्तार को !
और हमारे लिए
कैसा उत्सव, कैसा त्योहार
कि जिन्हें जन्मते ही फेंका गया
सड़कों पर, कचरे पर !
कब होंगे उनके हृदय और हाथ
इतने सबल और इतने निडर
कि गले लगा सकें
चूम सकें माथे और पोंछ सकें आँसू
अपने ही परित्यक्तों के !
देखना दुनिया वालो !…
एक दिन गुड़ भी तीखा होगा
क्योंकि वह भूलेगा नहीं
कि ‘उसके जीवन से मिठास कैसे ख़त्म हुई !’