भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सोचो... वो क्षण / सरोज परमार

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:23, 29 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरोज परमार |संग्रह=समय से भिड़ने के लिये / सरोज प...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उम्र भर के हादसों को
काग़ज़ पर उलट कर
बड़े कवि बन रहे हो?
सोचो? वो क्षण
जब हादसों से जूझते
जाग उठा था तुम्हारे अंदर का भीम.
पटक पटक कर पछाड़ रहा था
नागवार हालात को
तब तुम्हारे माथे पर कैसे उग
आया था सूरज ?
अब तुम केवल भुना रहे हो
बीते क्षणों को
और लूट रहे हो सस्ती शोहरत.