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सोचो... वो क्षण / सरोज परमार
Kavita Kosh से
उम्र भर के हादसों को
काग़ज़ पर उलट कर
बड़े कवि बन रहे हो?
सोचो? वो क्षण
जब हादसों से जूझते
जाग उठा था तुम्हारे अंदर का भीम.
पटक-पटक कर पछाड़ रहा था
नागवार हालात को
तब तुम्हारे माथे पर कैसे उग
आया था सूरज ?
अब तुम केवल भुना रहे हो
बीते क्षणों को
और लूट रहे हो सस्ती शोहरत.