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जंगल है महव—ए— ख़्वाब / साग़र पालमपुरी

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जंगल है महव—ए— ख़्वाब हवा में नमी—सी है

पेड़ों पे गुनगुनाती हुई ख़ामुशी—सी है


चट्टान है वो जिसको सुनाई न दे सके

झरनों के शोर में जो मधुर रागिनी-सी है


उड़कर जो उसके गाँव से आती है सुबह—ओ—शाम

उस धूल में भी यारो महक फूल की—सी है


लगता है हो गया है शुरू चाँद का सफ़र

आँचल पे धौलाधार के कुछ चाँदनी—सी है


ओढ़े हुए हैं बर्फ़ की चादर तो क्या हुआ

इन पर्वतों के पीछे कहीं रौशनी—सी है


काँटों से दिल को कोई गिला इसलिए नहीं

रोज़—ए—अज़ल से इसमें ख़लिश दायिमी—सी है


हैं कितने बेनियाज़ बहार—ओ—ख़िज़ाँ से हम

यह ज़िन्दगी हमारे लिए दिल्लगी—सी है


साग़र ग़मों की धूप ने झुलसा दिया हमें

फिर भी दिल—ओ—नज़र में अजब ताज़गी—सी है