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ऐसी हवा चले / यश मालवीय
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कवि: यश मालवीय
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काश तुम्हारी टोपी उछले ऐसी हवा चले,
धूल नहाएँ कपड़े उजले ऐसी हवा चले ।
चाल हंस की क्या होगी जब सब कुछ काला है,
अपने भीतर तुमने काला कौवा पाला है,
कोई उस कौवे को कुचले ऐसी हवा चले ।
सिंहासन बत्तीसी वाले तेवर झूठे हैं,
नींद हुई चिथड़ा, आँखों से सपने रुठे हैं,
सिंहासन- दुःशासन बदले ऐसी हवा चले ।
राम भरोसे रह कर तुमने यह क्या कर डाला,
शब्द उगाये सब के मुँह पर लटका कर ताला,
चुप्पी भी शब्दों को उगले ऐसी हवा चले ।
रोटी नहीं पेट में लेकिन मुँह पर गाली है,
घर में सेंध लगाने की आई दीवाली है,
रोटी मिले, रोशनी मचले ऐसी हवा चले ।